कवि-कथानटी डॉ. सुमन केशरी आपकी किताबों की समीक्षा, इन शब्दों में करें तो आप अपने आपको बेहद सम्मानित महसूस करते है –

“आम लोगों को खास बनाती प्रेरणा जैन की कहानियाँ…

कहानियाँ पढ़ते हुए, खास तौर पर प्रेरणा जैन की कहानियाँ पढ़ते हुए, मुझे अक्सर मुक्तिबोध की कविता – “मुझे कदम कदम पर” की ये पंक्तियाँ याद आती हैं –

“हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,

प्रत्येक सुस्मित में विमल सदा नीरा है,

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में

महाकाव्य-पीड़ा है,

पल-भर में सबसे गुज़रना चाहता हूँ,

प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ..”

आप में से कई लोग चौकेंगे कि प्रेरणा जैन नाम की यह कौन-सी नई कहानीकार है? कुछ लोग कहेंगे कि ये तो फोटोग्राफ़र है, कोई पत्रकार भी नहीं, तो इसकी बात क्यों? फ़ोटोग्राफ़र और पत्रकार की बात मैं इसीलिए कह रही हूँ, क्योंकि इन दिनों दृष्टि कुछ ज्यादा ही उपयोगितावादी हो गई है। वैसे तो किसी समय भी, पत्रकार मामले को सूंघ कर खबर निकाल लेने की अपनी महारत और उसी के चलते बनी न्यूसेंस वैल्यू के कारण वंदनीय रहे हैं, पर आजकल तो पत्रकार चाहें तो किसी को भी फ़र्श से अर्श और अर्श से फ़र्श पर ला सकते हैं और चाहें तो सच को झूठ और झूठ को सच की तरह पेश कर दें और इतना ही नहीं वे तो खबरें भी खुद बुनने लगे हैं और हाथी को धूल और धूल को हाथी बनाने की कला में भी दिनों-दिन निष्णात होते जा रहे हैं। किसी को यह भी लग सकता है कि माना कि प्रेरणा अच्छी फ़ोटोग्राफ़र हैं, पर ये तो हमारे आसपास की चिड़ियों की, बंदरों और अनाम अबूझ लोगों की फ़ोटो खींचती हैं और चंद पंक्तियों के साथ उन्हें सोशल मीडिया या किसी अखबार में छाप-छपवा देती हैं। वे राजनेताओं, इंडस्ट्रियलिस्टों, सुपर स्टारों और एक्ज़ोटिका, माने नागा साधुओं, चिलम के धुएं के बादलों से घिरे बाबाओं -शाबाओं की फ़ोटो तो नहीं खींचतीं कि खिंचवाने वालों से लेकर देखने वालों तक उन्हें सेलिब्रिटी फ़ोटोग्राफ़र का दर्जा देकर उनकी छींक तक को खबर बना दे और उनकी लिखी कही किसी भी बात को न भूतो न भविष्यति घोषित कर दे। तो क्यों बात करें उसके बारे में जो न तो किसी पत्रिका या अखबार को जेब में रखे है, न किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में पढ़ा रही है, न बड़ी अफ़सर है न नेता या उनसे जुड़ी कोई व्यक्ति, तो क्यों बात करें इसकी कहानियों की या फ़ोटो-फीचर्स की।

पर कई ऐसे पाठक भी होंगे जो मेरी इन पंक्तियों में अपना अक्स देखेंगे और सोचेंगे कि यह तो हमारी बात हो रही है। तो यह बात भारत की उस नागरिक की कहानियों के बारे में है, जिसका दिल यहाँ की जमीन में, लोगों में, हवा और पानी में अपना निवास ढूंढता है और जो यहाँ की हर प्रकार की विविधता को भरसक इस तरह सींचता है कि एक कड़ी में सब गुंथ जाएँ और मुँह से निकले- यह है मेरा वतन!

प्रेरणा जैन की शख्सियत कुछ ऐसी ही है। वे बेहद आम चेहरे मोहरे वाली ऐसी खास व्यक्ति हैं, जिन्हें जानने के लिए उनके या उनकी रचनाओं के पास जाने की जरूरत पड़ती है, कुछ पल तमाम पूर्वग्रहों से मुक्त होकर ठहरना पड़ता है और तब आप चौंकते हैं कि आप मणियों के ढेर के पास खड़े हैं।

चलिए बात को ज्यादा न बढ़ाकर सीधे प्रेरणा जैन की कहानियों पर केन्द्रित किया जाए।

अब तक प्रेरणा जैन के दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। “कहानियाँ: कुछ आम कुछ खास” और “बेजोड़: कुछ उम्मीदें, कुछ उलझनें” । दोनों संकलन मिलाकर छत्तीस कहानियाँ पाठकों के लिए उपलब्ध हैं। मूलतः हिंदी में लिखी गईं इन कहानियों का अंग्रेजी रूपांतर भी प्रकाशित हो चुका है। दूसरे संकलन की कहानियों का अनुवाद स्वयं लेखिका ने किया है।इस तरह से प्रेरणा सहज ही द्विभाषी हैं और अंग्रेजी-हिंदी दोनों में समान गति रखती हैं। वे आम बोलचाल की हिंदी में लिखती हैं किंतु एकदम सटीक शब्दों में।

अगर दोनों संकलनों को मिलाकर इन छत्तीस कहानियों पर निगाह डालें, तो सवाल उठेगा कि क्या खासियत है इन कहानियों की? सबसे पहली बात तो यह कि ये सारी कहानियाँ हमारे आसपास के लोगों से जुड़ी हैं। छोटे कलेवर की ये कहानियाँ संवाद-शैली में ही लिखी गई हैं। दो या अधिक लोग बात कर रहे हैं और बातचीत के उसी क्रम में हम अतीत से लेकर आगत तक से परिचित हो जाते हैं। ये संवाद सवाल भी उठाते हैं और राह भी दिखाते हैं। कई पीढ़ियों और समाज के कई तबकों और नजरियों की सोच इन कहानियों में साथ साथ प्रकट होती चलती है। उन्हें पढ़ते-सुनते हुए आप अपने मन में उठने वाले कई सवालों- भावों से जूझते चलते हैं। मसलन- अगर मैं इन स्थितियों में होती तो क्या करती?…हाँ एक रास्ता यह है…अथवा ओह! हम भी तो ऐसा ही सोचते हैं..!

इन कहानियों का कथ्य या रूपविधान जटिल नहीं है, पर ये हमारे संस्कारों में बस गई पितृसत्तात्मक सोचों को, जाति, धर्म के प्रति हमारी संकुचित विचारों को, मान्यताओं को एकदम उजागर कर देती हैं।

“कहानियाँ: कुछ आम कुछ खास” में संकलित “घर की इज्जत” और “मेरी अलमारी” कहानियों में बेटी को पराया मानने वाली बात सहज ही आ जाती है। किंतु कहानियाँ अगर यहीं खत्म हो जातीं तो उन पर क्योंकर बात की जाती? ये दोनों ही कहानियाँ बेटियों को अपने लिए खुद सोचने और निर्णय करने का प्रस्ताव करती हैं। यही नहीं उसी संकलन की कहानियाँ, “पत्नी का कैरियर” और “अब बस बहुत हुआ”, “मैंने उसे कूट दिया” भी स्त्री में आ रहे बदलावों को नोट करने वाली कहानियाँ हैं। ये स्त्रियाँ परचम उठाकर, लड़-झगड़ कर अपनी स्वाधीनता की घोषणा नहीं करतीं बल्कि घर की परिस्थितियाँ, पति के स्वार्थपूर्ण व गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और समाज की सोच में धीरे धीरे आ रहे परिवर्तन उन्हें अपने लिए निर्णय लेने और उस पर अडिग रहने का साहस देने वाले कारक बनते हैं। यह बात ध्यान देने की है कि इन छोटी छोटी कहानियों में भी प्रेरणा यह बात रेखांकित करना नहीं भूलीं कि निर्णय भी वही स्त्री ले सकती है, जो आर्थिक रूप से खुदमुख़्तार हो। यही बात उनके दूसरे संकलन में छपी “नमिता का बेटा” में देखने को मिलती है। पति से अलग नमिता को अगर कोई दूसरा पुरुष फूल आदि देकर उसके नजदीक आना चाहता है तो माँ स्पष्ट कर देती है कि तलाकशुदा औरतों के बारे में लोगों की सोच ऐसी ही होती है। पुरुष ऐसी स्त्रियों को “उपलब्ध” मान कर व्यवहार करते हैं। माँ आश्वस्त है कि बड़ी बेटी अपने पति के साथ खुश है। पर नमिता के पूछने पर सुलभा कहती है, “मेरे पास कोई चॉइस नहीं थी, शायद मैं तेरी तरह इंडिपेंडेंट होती, तो किसी कमजोर लम्हे में अलग होने का फैसला ले लेती।” कहानी में आगे सुलभा एक जगह बहुत मार्के की बात कहती है,

“ जब तक पति शराब पीकर मारपीट न करता हो, हमारे समाज में उसे छोड़ने की कोई बात वाजिब नहीं मानी जाती…”

प्रेरणा कितनी सहजता से परिवारों की मानसिक बुनावट को सामने रख देती हैं। यह सहजता देखने, सुनने और जज्ब करने से आती है, वरना ऐसी कहानियाँ कई बार बहुत उपदेशपरक और उबाऊ हो जाती हैं।

पहले संकलन की कहानियों के पात्र समाज के तमाम वर्गों से आते हैं। उनके संघर्ष अपनी पृष्ठभूमि से निर्धारित हो रहे हैं। जैसे “दही बड़े” कहानी में कामवाली की बच्ची दही बड़े बनाने के लिए दाल पीसने के बाद भूखी प्यासी घर आने के लिए बाध्य है। उसके दुःख से उपजे क्षोभ को व्यक्त करने वाली उसकी मालकिन है, जो पार्टी में तमाम इसरार के बावजूद दही बड़े नहीं खाती। “और मैंने उसे कूट दिया” की बाई अपने पति द्वारा की गई मार-पिटाई का बदला उसी तरह पीट कर चुकाती है।

प्रेरणा जैन के दूसरे संकलन- “बेजोड़” के सारे पात्र मध्यवर्ग से आते हैं। उनकी जरूरतें, आकांक्षाएं व कशमकश इन कहानियों के विषय वस्तु हैं। अधिकांश पात्र अपवर्ड मोबाईल तबके के हैं। उनमें स्वाधीनता की चेतना खासी प्रखर है। और इसी से पितृसत्तात्मक जीवनशैली व सोच से लगातार भिड़ंत की स्थितियाँ बनती हैं। “बोनसाई” कहानी में एक अत्यंत प्रतिभा संपन्न लड़की को घरेलू स्त्री में बहुत प्यार के साथ बदल दिया जाता है। बोर्ड की टॉपर सुमन शादी करके खुश है। पर अपने भाई को घर की सोच से अलग फैसले लेते देख उसे अपना पालतू पशु सरीखा व्यवहार याद आता है। लेकिन अंततः यह वही भाई है, जो उसके मन में अपने व्यक्तित्व को जानने का जज्बा जगाता है और आगे बढ़ने का रास्ता भी सुझाता है। यहाँ खासे अनपेक्षित ढंग से सुमन की माँ जो बहुत दब्बू-सी दिखती है, बेटे के फैसले का समर्थन करने का हौसला रखने वाली स्त्री के तौर पर उभरती है। वह दब्बू दिखती है पर है नहीं। निर्णय के क्षण में मजबूती से खड़ी औरत बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह बात भाई बहुत सुसंगत ढंग से सुमन को बताता है।“ये कैसा प्यार था” भी लगभग इसी थीम पर लिखी गई है। इस कहानी में बेटी, अपनी माँ से ऐसे अनेक प्रश्न पूछती है, जो अंततः माँ को अपने होने के बारे में सोचने का एक सिरा थमा जाते हैं। अगर प्यार किसी व्यक्ति को विवेक पूर्ण व स्वतंत्र ढंग से सोचने के लिए तैयार नहीं करता तो ऐसी चिंता या “केयर” को क्या प्यार का नाम दिया जा सकता है? यह विचारणीय प्रश्न है, जिसे प्रेरणा बहुत प्रभावी ढंग से उठाती हैं। एक डॉयलॉग देखें- “वो आपको इतना प्यार करते थे। शादी के बाद अगर आप खुश न होतीं और अपना ससुराल छोड़कर वापस नाना के घर आना चाहतीं, तो क्या वो आपको बुला लेते?”

“ना!”

“ये कैसा प्यार था?”

ये कहानी ऐसे ही सवालों के माध्यम से पितृसत्ता के प्यार की अवधारणा को प्रश्नचिन्हित करने का जरूरी काम करती है। “बोन्साई” में प्यार एक व्यक्ति की जड़ें काट कर उसके सहज विकास को अवरुद्ध कर “दर्शनीय” आब्जेक्ट बना देता है तो “ये कैसा प्यार है” का प्यार एक अन्य प्रतिभाशाली स्त्री को चौके-चूल्हे में बांध कर उसकी सारी संभावनाओं पर सोख्ता रख उसे बंजर में बदलने में जुट जाता है।

पर प्रेरणा जैन की सभी कहानियों में कम से कम एक ऐसी चरित्र जरूर होती है, जो अपनी खुली सोच व पहलकदमी के माध्यम से न केवल पीड़ित व्यक्ति को सही मौके पर चेता देती है, बल्कि उसके जीवन की सूखती जड़ों को लगातार तर करने का काम करती चलती है। यह पात्र स्त्री भी हो सकती है और पुरुष भी। यहीं से जीवन का नया अध्याय शुरु होता है। “बोन्साई” की सुमन अपने पिता के व्यापार को संभालती है तो “जरूरी नहीं है हर वक्त कुर्बानी देना” की निर्मला अपने हिस्से के जीवन को अपनी तरह से जीने का फैसला लेती है।

बेजोड़ में कुछ ऐसी भी कहानियाँ हैं, जिनके चरित्र हमें बहुत दिनों तक याद रहेंगे। इनमें से “चाची” की चाची, “उधार प्रेम की कैंची है” की माँ और “तांत्रिक” की नीलिमा। ये सभी स्त्रियाँ जीने की राह दिखाने वाली हैं। ये अपने व्यवहार द्वारा अपने चरित्र की मजबूती को बखूबी प्रकट करती हैं। चाची तो बल्कि पाठक को हैरान कर देती है। जिस पति ने उसे बरसों पहले घर में रहते हुए भी छोड़ दिया था, वह पति मरने के बाद चाची के मन में कोई करुणा नहीं जगा पाता। चाची के लिए उसका होना न होना बराबर रहा। यही उस स्त्री का विद्रोह है। सबके लिए उपयोगी वह स्त्री अपने जीने की सार्थकता कर्म में ढूंढती है। वह पति द्वारा त्याग दिए जाने पर आंसू नहीं बहाती, बल्कि सबके लिए काम करके अपना महत्त्व बढ़ा देती है। घर में सबकी जुबान पर चाची है। इससे अधिक सबल व सार्थक चरित्र की कल्पना कठिन है।

पिछले कई वर्षों से कथानटी के तौर पर कहानियाँ पढ़ने के क्रम में मैंने अनेक भाषाओं की अनेक कहानियाँ पढ़ीं। चर्चित-अचर्चित सभी तरह की। इन कहानियों को पढ़ते हुए और चर्चा में रही कहानियों को भी पढ़ते हुए, मैंने पाया कि अक्सर किसी रचना की चर्चा उस विशिष्ट कहानी, उपन्यास, कविता के तौर पर नहीं बल्कि वह किसके कलम में निकली है, इस तौर पर होती है या फिर प्रवृत्तिगत। यानि कि अगर किसी रचना में किसी खास तबके का उत्पीड़न दिखाया गया हो और समाज के अन्य हिस्से उत्पीड़क के तौर पर रखे गए हों, तो ऐसी रचनाएँ तुरंत ध्यान के केन्द्र में आ जाती हैं। अगर कोई रचना, पात्र या चरित्र को किसी खास तबके के दायरे से निकाल व्यक्ति के तौर पर देखने का प्रयास करती है तो ऐसी रचनाएं आमतौर पर उपेक्षित रह जाती हैं। यानि कि केवल पहनावे या मेकअप में नहीं फैशन का बोलबाला रचनात्मकता के हर पहलू में है। दरअसल फैशन किसी चीज को स्वीकारने या अस्वीकारने का आसान उपाय दे देता है। इसी तरह से दलित, स्त्री या थर्ड जेंडर और कहीं कहीं माइनॉरिटी का उत्पीड़न पाठक को वह टूल मुह्हैया कर देता है, जिससे रचना की प्रासंगिकता को मापा जा सकता है। हर काल की अपनी शब्दावली होती है। जैसे कि भक्तिकाल की भक्ति वाली शब्दावली और आज की उत्पीड़ित वाली राजनैतिक शब्दावली। प्रेरणा जैन की कहानियाँ यूँ तो स्त्री के केन्द्र में रख कर लिखी कहानियाँ हैं, किंतु इसमें उत्पीड़क स्वयं कोई स्त्री भी हो सकती है। जैसे कि “सहेली की शादी” की इला सिंघानिया। इला सीधे सीधे उत्पीड़क नहीं है पर उसे कम हैसियत वाली साधारण गीता से चिढ़ है। और जब गीता इन्कम टैक्स अधिकारी बन जाती है, तो भी इला अपनी फितरत के हिसाब से उसे खरीदने की कोशिश करती है।यानि कि अनेक कहानियों में प्रेरणा के स्त्री चरित्र जीते-जागते, निर्णय लेते एक व्यक्ति के तौर पर सामने आते हैं, प्रतीक के तौर पर नहीं। इन दिनों हमें प्रतीक समझने की आदत हो गई है, हाड़-माँस के जीते जागते इंसान हमारी समझ के दायरे से बाहर होते जा रहे हैं। साहित्य के लिए इससे अधिक दुर्भाग्य की बात कुछ और नहीं हो सकती।

अब जब मेजोरिटी-माईनोरिटी की बात हो ही गई तो प्रेरणा जैन की दो कहानियों का जिक्र अनिवार्य है। ये दोनों कहानियाँ- आय एम सॉरी और इमली, उनके पहले संकलन- कहानियाँ कुछ आम, कुछ खास में हैं। आय एम सॉरी में दो व्यस्क लोग विवाह करना चाहते हैं। वे दो भिन्न धार्मिक समुदाय के हैं। दोनों में प्रेम है, दोनों के परिवार एक दूसरे से परिचित हैं, किंतु परिवार इस विवाह के लिए इसी शर्त पर तैयार है कि शादी के बाद दम्पति देश छोड़ बाहर बस जाएंगे, ताकि परेशानियों से बचे रहें। युवाद्वय अपने माता-पिता को यहाँ छोड़ना नहीं चाहते और निर्णय लेते हैं कि वे विवाह सूत्र में नहीं बंधेंगे। सच कहूँ तो इस कहानी को पढ़कर मेरा मन फट गया। प्रचलित मुहावरे में रचा-पगा मन सोचने लगा कि विवाह तो होना चाहिए था, वरना समाज में उचित बदलाव कैसे होगा। मैंने कहानीकार से इसके अंत को लेकर बात की, एक बार नहीं दो-तीन बार बात की, एक अन्य कहानी- आसान नहीं है अकेले लड़ना- के संदर्भ में भी। प्रेरणा ने केवल एक बात बार बार कही, “सुमन जी ये कहानियाँ जीवन से ली गईं हैं। ये सच्ची कहानियाँ हैं!”

यानि कि मैं, जीवन की सच्चाई और लेखन की सच्चाई को अलगा रही थी और एक सपना बुन रही थी कि प्रेमी-युगल का विवाह हो जाता तो मैं कह पाती- अंत भला तो सब भला! पर आज का समाज ऐसे विवाह की कितनी छूट दे रहा है। प्रेमी युगल देश छोड़ फरार हो जाए तो यहाँ रहने वाले क्या भुगतने से बच जाएंगे। और कुछ न हो तो छींटाकसी और बिरादरी बाहर करने की मौन साजिश तो उनके खिलाफ़ होगी ही। यूँ तो हमारा समाज भिन्न धार्मिक समुदायों अथवा भिन्न जाति के लोगों के विवाह के प्रति सदा से असहिष्णु रहा है, पर पहले इसकी कुछ गुंजाइश होती थी, पर आज तो यह कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। किंतु दोस्तियाँ अब भी होती हैं और जारी रहती हैं। प्रेरणा की निगाह से यह बात ओझल नहीं होती। “इमली” कहानी में ऐसे परिवारों हैं, जो अपने बच्चों को दूसरे समुदाय के बच्चों से मिलने से नहीं रोकते। यानि इस समाज में दोनों तरह की सच्चाइयाँ हैं। दोस्ती हो सकती है, प्रगाढ़ संबंध नहीं। प्रेरणा समाज के सच को साहस से देखती-रचती हैं।

प्रेरणा की कहानियाँ सच पर आधारित हैं इसीलिए इन कहानियों में जीवन की जटिलताएँ व संघर्ष भी हैं, पर वे न तो उनका सुविस्तृत चित्रात्मक वर्णन करतीं हैं और न ही वे इन्हीं परेशानियों व संधर्षों तक सीमित रहती हैं। वे सोचती हैं हल। अपनी कहानियों में वे बड़े-बड़े वायदे भी नहीं करतीं। प्रेरणा समाज को खुर्दबीनी निगाह से देखती हैं और धीरे से बताती हैं, कि जीवन को सही तरह से जीने के लिए दूसरे के मन को समझ कर व्यवहार करना बहुत जरूरी है। अन्यों के साथ मिलकर ही जीवन जीवन बनता है, अकेले से नहीं। इस तरह प्रेरणा अपनी कहानियों में समाधान सुझाती चलती हैं। उम्मीद की एक किरण जगाती हैं। इस अंधेरे समय में ऐसी किरणों का होना कितना जरूरी है, यह हम सभी जानते हैं।”


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