Suman Keshri ji, the super-talented and gracious poetess, story reader and much more, wrote about Jashn-e-Dilli, a festival we had organised and curated on 14th December 2025. I have copied and pasted her review of the festival from her Facebook wall. The photographs are by Deepika Shergill and some other photographers who were celebrating Delhi with us.

जश्न ए दिल्ली….

14 दिसंबर 2025 । यह दिन कई मायनों में खास रहा क्योंकि इसी रोज फ़ोटोग्राफ़र-कथाकार प्रेरणा जैन ने अपने घर पर “जश्न ए दिल्ली” का सुंदर आयोजन किया। इस आयोजन में उनकी सहयोगी रहीं- सादिया अलीम, जिन्होंने तमाम भागदौड़ कर इसे संभव किया।

दिल्ली का जश्न! क्या यह शहर ऐसा है कि इसे यूँ यूँ याद किया जाए। अगर न होता तो क्या ज़ौक कह पाते-

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न।

कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर।।

सचमुच इन दिनों जब, प्रदूषण से लेकर तमाम परेशानियों के चलते कई लोग दिल्ली छोड़ दकन भी जा रहे हैं और देश-विदेश में दूसरी जगहों पर भी, तब दिल्ली को यूँ याद करना जरूरी-सा लगता है। शायद यह अपनी तरह की कोशिश है कि दिल्ली ऐसी तो न हो कि इसकी गलियाँ सूनी हो जाएँ- हर तरह के- नफ़रतों से लेकर अरावली विध्वंस तक के डर से। पर एक सच यह भी है कि दिल्ली की गलियाँ दिल में बसी रह जाती हैं! एक याद की तरह, एक जरूरत की तरह। तो यह भी एक कारण रहा दिल्ली को इस तरह सेलीब्रेट करने का। यहाँ इस जश्न में तो, दिल्ली वाले भी थे और वे भी जो अब दिल्ली को अपना चुके हैं।

इस जश्न का मकसद है दिल्ली में रहने वाले भिन्न भिन्न धर्मों के लोगों का एक जगह इकठ्ठा होकर “साझे चूल्हे” वाली उस दिल्ली को याद करना, उसे बचा रखना।

इस जश्न में चांदनी चौक तो कदम कदम पर था। कभी वह हवेलियों और मंदिरों की बुनावटों-बनावटों में था तो कभी परमानंददास और रसखान के पदों में । कभी लाल जी जैन मंदिर का जिक्र था तो कभी लाडली जी के मंदिर का। पर चांदनी चौक का वह जिक्र भी क्या जिक्र होगा अगर उसमें सीसगंज गुरुद्वारा और फ़तेहपुरी मस्जिद का जिक्र न हो। जहाँ सूफ़ी संगीत न हो, किस्सा गोई न हो और आम फहम लोगों की जुबानों का जायका न हो। पर दिल्ली एक शहर भर थोड़े ही है, वह तो हिंद का दिल भी है। कौन होगा जो दिल्ली से दूर रह सका हो? सच में दिल्ली अपने दिल में सभी को समो लेता है। तो इस जश्न में इब्ने इंशा के साथ मंटो भी आ गए थे। मंटो की मियाँ-बीबी पर एक मजेदार नोक-झोंक वाली कहानी सबा बशीर और सुनीता सिंह ने मिल कर सुनाई और इब्ने इंशा पर दानिश इकबाल को सुनना गोया, उस दौर में चले जाना था।

शुरुआत हुई अशोक माथुर के भजन गायन से। ऊपर मैंने पुष्टिमार्गी कवि परमानंददास और बाद में हुए रसखान का जो जिक्र किया है, यह इन्हीं के हवाले से किया है। इन्होंने दो भजन गाए और मन में दिल्ली की गलियों में उपस्थित वृंदावन बस गया। कृष्ण के दर्शन मात्र से भाग खुल गए थे गोपिन के कि उसका सारा दूध झट से बिक गया और तो और उसने एक काली गैया भी मोल ले ली! कितनी बरकत! तो इस पद के हवाले से मेरी भी दुआ है कि प्रेरणा के घर में भी खूब बरकत हो!

अशोक ने सैयद के आले का भी जिक्र किया। मुझे ग्वालियर में अपने घर में मौजूद सैयद के आले का ख्याल हो आया। हर जुमेरात अब भी वहाँ हरी चादर चढ़ाई जाती है। विवाह के बाद और दोनों बच्चों के जन्म के बाद घर में प्रवेश करते ही हमने सैयद बाबा का आशीर्वाद लिया था। पुरुषोत्तम का परिवार भी तो खुद को “दिल्ली वाले “कहता है। 1739 में नादिर शाह के हमले से बचने के लिए इस परिवार ने दिल्ली छोड़ा था। मथुरा होते हुए यह परिवार ग्वालियर पहुँचा और वहीं का होकर रह गया। बोली बानी में वहाँ खालिस खड़ी बोली, बोली जाती है और तीज त्यौहार में भी दिल्ली अभी बची हुई है। यह भी संयोग ही ठहरा कि कई पीढ़ियों बाद परिवार का एक लड़का दिल्ली वाला हो गया। लोकेश जैन ने दिल्ली की मिली जुली संस्कृति के बारे में बहुत विस्तार से और मजे लेकर बतलाया तो लगा, काश हम भी वहीं के बाशिंदे होते। उन्होंने भी वहाँ के साझा मेलजोल वाली संस्कृति पर प्रकाश डाला। रिनी सिंह के सूफ़ी गायन ने मन मोह लिया। रिनी ने हरा भी खूब पहन रखा था। उन्होंने जब बतलाया कि स्कूल से वे शीश महल मत्था भी टेकने चली जाती थीं और अपने मुस्लिम और बनिया दोस्तों के यहाँ खाने भी तो लगा, यही तो वो दुनिया है, जिसे हम बनाए-बचाए रखना चाहते हैं। और उसी के लिए इस जश्न का आयोजन किया गया है। यहीं मुझे महेश्वर दयाल की लिखी किताब- “दिल्ली जो एक शहर है” का जिक्र करना जरूरी लगता है। महेश्वर दयाल का परिवार तीन सौ से अधिक वर्षों से दिल्ली में रहता आया है। उन्होंने अपनी गहरी जानकारी के आधार पर दिल्ली शहर के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाजों, बोली बानी पर जम कर लिखा है। मैंने कायस्थ हवेली में आने वाली नायन के अंदाजेबयाँ को प्रस्तुत किया। दिल्ली की वो लच्छेदार मुहावरे सनी जुबान जो नायन और दादी की बातचीत में प्रकट होती है। इस किताब को पढ़ना भी आनंद के सरोवर में डुबकियाँ लगाना है। इसमें दिल्ली कितनी बार बसी से शुरुआत करते हुए महेश्वर दयाल जी हवेली के रहन-सहन, बनाव सिंगार, खान-पान और दस्तरखान से लेकर दास्तानगोई, गंजफ़ा, शतरंज और चौसर से लेकर तवायफ़ों और हिजड़ों तक के बारे में बताते हैं। पहलवानों से लेकर नौटंकी, भांड व नक्कालों को भी समेट लेते हैं। और तो और बावड़ियों व फूलवालों की सैर भी उनकी निगाह से नहीं बचे। दिल्ली के लोकगीतों को जानने का भी एक तरीका बता जाते हैं। यह किताब मूलतः फ़ारसी लिपि में लिखी गई ती। इसका अनुवाद नूर नबी अब्बासी साहब ने किया और भूमिका लिखी नामवर सिंह ने। नामवर जी ने एक बात बहुत पीड़ा के साथ लिखी है। “… यह किताब पढ़ते समय सिर घूमता रहा कि अपने बनारस पर भी ऐसी कोई किताब क्यों नहीं लिखता…।”

सच तो यह है कि जो शहर बार बार बिगड़ता-बनता रहे, उसका मोह ही अलग किस्म का हो जाता है। उसे बार बार याद करना दुःख और सुखों को गोया एक बार फिर जी लेना है। दिल्ली ऐसा ही शहर है। कितने हमले हुए, कभी यहाँ के मूल निवासियों पर (इंद्रप्रस्थ याद करें) तो कभी यहाँ बस गए निवासियों पर। कभी उन्हें दौलताबाद ले जाया गया और फिर वापस दिल्ली लाया गया तो कभी यहाँ के लोग उखड़ कर दूर जा बसे। इतनी तरह के लोग आए और दिल्ली ने उन्हें अपने कलेजे से लगा लिया कि वे इस शहर के आँचल को अपने अपने अंदाज भरने में जुट गए। इसीलिए तो दिल्ली के इतने रंग हैं, जितने इंद्रधनुष में भी नहीं। कभी रामलीला, तो कभी ताजिए तो कभी छठ पर्व के घाट। कहीं दुर्गापूजा तो कहीं गणपति स्थापना और कभी सिक्खों के जुलूस। अब कुछ दिन बाद क्रिसमस ट्री और कैरल्स सुनाई पड़ने लगेंगे। वाह री हमारी-तुम्हारी दिल्ली। तो ऐसी दिल्ली का मोह क्यों न जगेगा। कोई क्यों न खोलेगा इतिहास के पन्ने और उसमें से जो भी जीवित किया जा सके, उसे कोई क्यों न संवारेगा?

अभी चंद हफ़्ते पहले मैं बागपत के पास काठा में स्थित शिकवा हवेली गई थी। अल्का रज़ा जी ने लिट-फ़ेस्ट का आयोजन किया था। वहाँ भी अंतर्धार्मिक संगोष्ठी थी, जिसमें साहित्य के विभिन्न रूपों पर बात होनी थी। तो वहाँ दिल्ली के खिड़की गाँव की भी बात हुई और महाभारत की स्त्रियों की भी। महाभारत वाली कविता मैंने सुनाई थी। वहाँ गणपति की वंदना में प्रस्तुत नृत्य में मुस्लिम बच्चियाँ भी थीं। खाना दिल्ली सल्तनत के हिसाब का था। हो भी क्यों न, हवेली भी तो 700 साल पुरानी काजियों की हवेली है। तो अतीत को देखते हुए भविष्य को सुरक्षित करने की जरूरत लगातार दिखाई पड़ रही है इन दिनों। वहाँ के जमावड़े में भी हर तरह के लोग थे। कोई भेदभाव न था। एक बात बताती चलूँ, वहाँ के आयोजन में भी मुख्य कर्ताधर्ता अपनी सादिया मैडम ही थीं। गजब की ऊर्जा है इस स्त्री में!

प्रेरणा के यहाँ का उत्सव बहुआयामी था। उसमें दिल्ली के कई रूप दिखाई पड़े। और तो और पेड़ों- बेलों के घिरे उस बगीचे में दिल्ली की चिड़ियाँ चहचहा कर अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज कर रही थीं। भला वे क्यों चुप रहतीं। वे जानती हैं कि मेजबान के कैमरे की एक आँख उन्हीं का पीछा करती है। मैंने भी उनके लिए एक कविता सुना ही डाली। घर प्रेरणा का हो और कविता में चिड़िया न आए तो मुझे अपनी प्रस्तुति अधूरी ही लगती- “मेरी खिड़की के बाहर चिड़िया का बच्चा बोला…बिटिया बोली चिड़िया का बच्चा बोला।” मुझे प्रेरणा की मोरनी व उसके बच्चों वाली फ़ोटो सीरिज़ बहुत प्रिय है। लगता है बच्चे मोर मोरनी के नहीं, खुद प्रेरणा के हैं, जिनकी पल पल की खबर माँ को है।

सबसे पुरानी दिल्ली को याद किया मीता वाधवा सेनगुप्ता ने। द्रौपदी पर उनकी कविता और उसकी प्रस्तुति सिहरा देने वाली थी। बहुत भावपूर्ण पाठ किया। मीता और मैंने साथ साथ अपनी प्रस्तुतियाँ दी थीं। रक्शंदा ने दिल्ली के पुराने दिनों की याद दिलाई जब वे दिल्ली के भीतर बसे गाँवों में जाती थीं। वे दिन जब बच्चों को गाड़ी में ठूंस ठूंस दिल्ली की इमारतों-बागानों को दिखाने ले जाया जाता था। उनके साथ बात कर रही थीं सायरा मुत्जबा। उन्होंने अपनी नानी अम्माँ, मशहूर कथाकार मसरूर जहाँ की लिखी कहानी भी सुनाई। तारिक़ भाई ने सलीमा रज़ा की लिखी कहानी “दरमियानी” और एक मजेदार कहानी “मुग़ल बच्चा” सुनाई। उनके कहन का अपना निराला ही अंदाज है।

दिल्ली के बारे में बात हो और यहाँ के पर्यावरण नाश पर चर्चा न हो, यह कैसे हो सकता था। हृदयेश जोशी ने इस मुद्दे पर बहुत गंभीर काम किया है। उन्होंने कितने ही मुद्दों पर बात की। हृदयेश के काम को जानना,समस्या को गहराई से समझना है। उनके चैनल पर इस मुद्दे पर अनेक वीडियों हैं। उनके चैनल का नाम है- @EcoNEnergyTalk इस चैनल पर एक से एक वीडियों हैं। मौका मिलते ही देख डालिए। इसी सत्र में मधुलिका लिडल और स्वप्ना लिडल ने दिल्ली के बागों व पेड़ों की चर्चा की।

कस्तूरिका मिश्र ने गजलें सुनाई तो साहिल और सादिया ने मिलकर दिल्ली के किस्से। मुझे सबसे ज्यादा मार्मिक लगा औरंगज़ेब का किस्सा ए इश्क़। औरंगज़ेब के बारे में सोचती हूँ तो मन उदास हो जाता है। कैसे किसी इंसान को हम हैवान में बदल देते हैं…

कार्यक्रम के अंतिम चरण में पधारे आसिफ़ खान देहलवी ने कुछ अफ़साने दिल्ली की शान में सुनाए तो कुछ रंग-रंगीले राजस्थान की शान में। उनके आने से कुछ रंग और मिले इस जश्न को।

अब आएँ खाने पीने पर। हम भारतीय वैसे भी खाने पीने के शौकीन लोग हैं। हर गाँव का अपना ही व्यंजन होता है और इतना सुस्वादु कि उम्र निकल जाए जीभ पर स्वाद को रचाए बसाए। इस आयोजन में खाने पीने का इंतेजाम भी ठेठ दिल्ली वाला ही रखा गया था। सुबह की चाय मटर कचौड़ियों के साथ तो दोपहर के खाने में दिल्ली वालों की पसंदीदा चाट, गोलगप्पे, टिक्की, बेड़वीं व आलू की रसेदार सब्जी, चटनियाँ व अचार, जलेबियाँ, रबड़ी और नीना का लाया गुड़ भी, शाम को रुखसार का लाया रामपुरी गुलत्थी। इसे बनाया था एक केंसर सरवाईवर ने। वे लोग मसाले भी बनाते हैं। अगर आपको रामपुरी गुलत्वथी व मसालों की दरकार है तो रुख्सार से कहें। वहाँ मजेदार प्लम केक भी था। यानि हम सरीखे पुराने लोगों से लेकर नए जमाने के युवाओं तक की पसंद का पूरा पूरा ख्याल! यह काम प्रेरणा व सादिया के बूते का ही था। खाना बनाने वाले और खिलाने वालों का मन से तृप्त आत्मा का आभार!

बात अधूरी ही रह जाएगी, अगर उन लोगों का जिक्र न हो, जो आए और आकर उन्होंने सारी प्रस्तुतियाँ ध्यान से सुनीं। उत्सव को सही मायने में उत्सव बनाया। वरना “तू कह मैं सुनूँ वाली” बात हो जाती! जितने मुँह बस उससे दुगने कान। पर यहाँ मन और कान बहुत सारे थे। उन्हें खास धन्यवाद। प्रेरणा के साथी राकेश पर्दे के पीछे से बहुत-सा भार संभाले हुए थे। मुस्कुराता चेहरा आश्वस्त करने वाला है। इसी तरह नीना वर्मा, सतवीर कौर, रुकैया, बशीर साहब, पुरुषोत्तम, संगीता माथुर, ऋतंभरा, यूमन, मीरा दीवान, प्रेरणा की बहन प्रीति, अलका माथुर, अफ़रोज़, रुख्सार, ऋचा जोशी, असमा, अनम, सादिया की बिटिया अयाना और सायरा की बेटी कियारा। सादिया की माता जी, अंशिका, भूमिका और भी कई कई लोग। कियारा ने लंच के दौरान गाने गाकर महफ़िल को सजाए रखा। ( जिन लोगों के नाम न आए हों वे माफ़ करें और कमेंट में लिख दें। मैं शामिल कर लूंगी।)

दीपिका जी ने कैमरा उठा इतनी सुंदर तस्वीरें लीं हैं कि भविष्य में भी लोग, उनकी तस्वीरों को देख जश्न ए दिल्ली का आनंद उठा लेंगे।

अगर यहाँ एक अत्यंत प्यारी शख्सियत का जिक्र किए बिना बात को विराम दे दूँ तो यह जश्न अधूरा माना जाएगा। मोरपंखी नीले परिधान में, जो उन्होंने खुद डिजाईन किया है, सजी धजी और जूड़े में गुलाबी गुलाब सजाए जब मैंने हिना कौसर को देखा तो सच में मन बाग बाग हो गया। हिना ने बहुत मेहनत से मंच संचालन किया। उन्होंने सोच कर खोज कर हम सबके बारे में लिखा और खूब खास अंदाज में उसका बयान किया। हिना और सादिया ने मिलकर माहौल को खुशनुमा बनाए रखा।

यह मत समझिएगा कि बात खत्म हुई…बार बार कुछ न कुछ जुड़ता रहेगा और कारवाँ चलता रहेगा! आमीन् !


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